प्रेम पवित्र
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(©रूपेश सिंह "वरेण्य मलय")
कौन कहता है कि वो मुझे नही चाहती,
बस बता नही पाती,
हाय क्या करे ज़माना है ना,
इसीलिए कुछ कह नही पाती, बस घुट के ही रह जाती।
वरना
जेठ भरी दुपहरी छत पे अपने क्यो आतीं,
सूखे कपड़े टटोलने के बहाने
आके क्यो रुक जाती,
गर मैं ना होता छत पे ,
वो कब कि चली जाती
क्यो मेरे घर से निकलने की, आवाज़ सुन दोपहिये की,
लपक खिड़की पे आती,
क्यो मेरे जाने तक मुझको एकटक निहारती और जब मैं देख लेता तो बगलें झाँकने लगती।
फिर झुकी नजरें उसकी बयान बहुत कुछ कर जाती,
जुबाँ भले ख़ामोश रहे पर कहना जरूर चाहती,
लेकिन हाय क्या करे ज़माना है ना, इसीलिए कुछ कह नही पाती, बस घुट के ही रह जाती।
मगर कौन कहता है कि वो मुझे नही चाहती,
वरना
शाम को जब सखियों संग घूमती नज़रें मुझे क्यों ढूंढती।
सड़क पर राह तकने के बहाने क्यो वो फिरती।
मेरे आने से पहले खोई खोई सी रहती और देखते ही मुझे बातें करने लगती,
ये तो महज़ बहाना होता, अफसाना तो दिल लुभाना होता। मेरी नज़रें जो अपनी ओर खींचनी होती,
आंखे सखियों से मिली होती,
और ध्यान होता घर में ना चला जाऊं मैं कहीं, थोड़ा रुक जाऊं वहीं तो क्या बिगड़ जाता।
आमने सामने की मुलाकात गर रह जाती अधूरी।
तो संध्या-आरती काल मीरा की विरह-तान सुना देती,
कहने को तो बहुत कुछ होती लेकिन हाय क्या करे
ज़माना है ना, इसीलिए कुछ कह नही पाती, बस घुट के ही रह जाती।
मगर कौन कहता है कि वो मुझे नही चाहती, बस बता नही पातीं।
वरना
सावन के महीने बरसते
सोमवारी के दिन शिवालय में,भाभी संग जब कर रही होती ठिठोली,
देख मुझे क्यो सुना जाती "जिसके लिए हूँ व्रती काश मैं उसकी होती"।
जलार्पण में झुकने के बहाने चरण मेरे क्यो छू लेती।
सांझ फूल लोढ़ने के बहाने बाग मेरे क्यो आतीं।
देख झेंपती पहले,
नज़र मिलते ही
नयनों में क्यो बसा लेती,
प्रेम रस गुनगुनाती
कहने को तो बहुत कुछ होती लेकिन हाय क्या करे
ज़माना है ना, इसीलिए कुछ कह नही पाती, बस घुट के ही रह जाती।
मगर कौन कहता है कि वो मुझे नही चाहती, बस बता नही पातीं।
वरना
ठंढ के महीने,
देर शाम तक कोहरे में, सिमटी शरमाई-सी तन्हाई में,
छत पे अकेली,
क्यो रहती।
बालों को सुखाते हुए दिन में
छीकें क्यो मुझे सुनाती,
मीठी खजूर की खीर बनाकर रविवार के दिन घर मेरे क्यो पहुँचाती, मेरी माँ से मिलती, चरण स्पर्श उन्हें करतीं, मेरे बारे में सुनना चाहती, पूछते पूछते रह जाती और बताना चाहती खीर मेरे लिये ही वो बनायी है, बड़े जतन से सपनों की दुनिया एक सजाई है
लेकिन हाय क्या करे
ज़माना है ना,इसीलिये कुछ कह नही पाती, बस घुट के ही रह जाती।
मगर कौन कहता है कि वो मुझे नही चाहती, बस बता नही पातीं।
वरना
बसंत के महीने सरस्वती पूजास्थल मेरे पहने पीताम्बरी वस्त्र वो सखियों संग क्यो मंडराती,
होली दिन बेरंग बेउमंग उदास क्यो दिखती।
मुझे देखते ही आँखे उसकी क्यो छलक जाती,
क्यो लिपटकर मुझसे आज खूब रोना वो चाहती,
क्यो पाक श्वेताम्बरी भींगो लेना वो चाहती
क्यो दीवार ज़माने की तमाम गिरा देना वो चाहती,
अब तो यही पूछती सबसे
क्यो राधा दूर रहे माधव से
क्यो ना करूँ प्रेम पवित्र मैं उनसे
प्रेयसी जिनकी बनी फिरूँ मैं कबसे
मगर...... रोके सजन.....
लोक लिहाज़ कदम.....
बेख़ुदी भले अब वश में रहे ना
लेकिन हाय क्या करे ज़माना है ना,
इसीलिए कुछ कह नही पाती, बस घुट के ही रह जाती।
मगर कौन कहता है कि वो मुझे नही चाहती, बस बता नही पातीं।
बस बता नही पातीं।
(©रूपेश सिंह "वरेण्य मलय")