जेठ की दोपहर विचर रहा सड़क पर एकाकी,
तभी सामने आती दिखी वो करती अठखेली।
छूके गुजरी सुकून दे गई, पूछा क्या है नाम
कह-दूर चली वय,शीतल हूँ समीर की मैं।
आगे बढ़ा वृद्ध तरु घूर रहा,
पूछा छाव मेरे क्या कर रहा,
शीतल को देखा है कहीं।
आगे बढ़ा चांपाकल रो रहा
तप्त सलिल तू क्यों पी रहा
शीतल तो है यहाँ नही
आगे बढ़ा इक विहंग जा मिला
था बेचैन उड़ना पा रहा
शीतल को जकड़ा तो नही
आगे बढ़ा खुद समीर आ मिला
शीतल को ढूँढता फिर रहा
प्रात थी दोपहर कहाँ जा छिपी
सहसा घटा हुई घनघोर,
अम्बुद गरजनाद होड़
घनप्रिया कड़कनाद शोर।
पड़े वृष्टी मेघनाद जोर।
शीतल दौड़ी भागी ढूंढते
थामी समीर की छोर।
अतीव नाच नचाया शीतल, ढूंढे सब चहुं ओर, हैं लांछन मुझपे ही लगाते क्या तुमसे कहूँ और।
चलो चले जाना है शीतल
मंद दिवा आसन्न,
दृग विहंगम नवता देखो,
व्योम मध्य विचरता,
मृगांक भी राह तकता
नीरद परत से झाँक।
हाँ निशिपति को कर सकती ना,
मैं किसी मोल निराश।
देखो कैसे लगा बैठे है,
लोक सभी ये आस।
समीर समा चुकी मैं
कबकी-तुममे-ही मेरी श्वास।
छूके गुजरी फिर सुकून दे गई,
अबकी चली सबकी गली,
कह दूर चली वय, शीतल हूँ समीर की मैं।
रूपेश सिंह "वरेण्य मलय"©