दुख की प्रत्येक अनुभूति में
बोध करता हूँ कहीं आत्मा है
मूल से सिहरती प्रगाढ़ अनुभूति में
आत्मा की ज्योति में
शून्य है न जाने कहाँ छिपा हुआ
गहन से गहनतर
दुख की सतत अनुभूति में
बोध करता हूँ एक महत्तर आत्मा है
निबिड़ता शून्य की विकास पाती उसी भांति,—
सक्रिय अनंत जलराशि से
कटते हों कूल ज्यों समुद्र के
एक दिन गहनतम इसी अनुभूति में
महत्तम आत्मा की ज्योति यह
विकसित हो पाएगी घिर परिणति महाशून्य में।