Mohan Rana

1964 / Dehli / India

गिरगिट - Poem by M

कितने नाम बदले चलन के अनुसार रंगत भी
बोलचाल के लिए बदले रूपक बदलने के लिए तेवर
एक दो गालियाँ भी पर हर करवट बेचारगी के शब्दों से भरपूर,
यह ट्रिक हमेशा काम करती है बंधु
बिल्ली के गले में कागज की घंटी बाँध सोया हुआ हूँ सपनों में सलाहें देता,
आश्वासन के खाली लिफाफों को बाँटता
आशा का तराजू बट्टा किसी के बस्ते में डालता
बदलाव की पुकार लगाता दिशाओं को गुमराह करता
लुढ़कता वसंत की ढलानों पर मैं गिरता हुआ पतझर हूँ,
क्या मुझे याद रह पाएगा हर रंगत में हर संगत में
यह उधार का समय जो मेरी सांसो से जीता रहता है मेरा ही जीवन
रटते हुए अक्सर भूल जाता हूँ सच बोलना.
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