सच और भय की अटकलें लगाते
एक तितर बितर समय के टुकड़ों को बीनता
विस्मृति के झोले में
और वह बेमन देता जबाव
अपने काज में लगा
जैसे उन सवालों का कोई मतलब ना हो
जैसे अतीत अब वर्तमान ना हो
बीतते हुए भविष्य को रोकना संभव ना हो
जैसे यह जानकर भी नहीं जान पाउँगा
मैं सच को
वह समझने वाली बाती नहीं
कि समझा सके कोई सच,
आधे उत्तरों की बैसाखी के सहारे चलता इस उम्मीद में
कि आगे कोई मोड़ ना हो
कि कहीं फिर से ना पूछना पड़े
किधर जाता है यह रास्ता,
समय के एक टुकड़े को मुठ्ठी में बंदकर
यही जान पाता
कि सबकुछ
बस यह पल
हमेशा अनुपस्थित