Mohan Rana

1964 / Dehli / India

पनकौआ - Poem by

कुछ दिनों में आएगा एक मौसम
इस अक्षांश में अगर वसंत हुआ
मैं कपड़ों को बदलूँगा
आस पास के नक्शे देखूँगा टहलने के लिए
पेड़ों पर कोंपले आएँगी
बची हुई चिड़ियाएँ लौटेंगी दूर पास से,
आशा बनी है ऐलान ना होगा खबरों में
किसी नई लड़ाई का
खंखारूँगा गला पूरा कहने अधूरा कि चुप हो जाउँगा
लंबा हो इतना इस बार मौसम कि यादें जल्दी ना लौटें
पतझर की, शब्दों के एकांत में

#

छोटा होता जा रहा वसंत हर साल
छोटा हो रहा है हर साल वसंत में,
कभी लगता शायद दो ही मौसम हों अब से
दो जैसे
अच्छा बुरा
सुख दुख
प्रेम और भय
तुम और मैं
जिनमें बंट जाएँ पतझर और वसंत और होती रहे सूखती बारिश साल भर

#

यूँ ही सोचा लिखा जाना रसोई से आती किसी स्वाद की गंध
अपनी आस्तीन में पाकर
नीरव पिछवाड़े में कुछ बूझने की चाह में
एक छोटी सी जगह में कोई तिल भर कुनिया खोजता
तो कुछ दिनों में आए केवल एक समय
दुनिया को बाँटने
जिसे याद रखने के लिए भूलना पड़ेगा सब कुछ
जरूरी सामान की पर्चियों के साथ अकेले,
जीने के लिए केवल सांस ही नहीं
प्रेम की आँच मन के सायों में
हाथ जो गिरते हुए थाम लेता

#

रोज की रेजगारी गिनतारा में जमा बेगार के उधारों को जोड़ते
जर्जर समकाल में घबराए सूखे गालों को टटोलते
नहीं देखा मैंने अब तक इस व्यतीत को,
आइने के भीतर से
जब लगाता हूँ मैं छलांग उसके उजले अनजान में
कुछ पाने कुछ खोकर.
91 Total read