जय जय जगन्नाथ हे नीळगिरि-नायक,
अभिनब घन-बरन भक्त-सुखदायक ॥ १ ॥
कन्धे शोहे य़ज्ञोपबीत अग्निसुत सुढ़ळ,
हाटक मुकुट मस्तके गभा दयणामाळ ॥ २ ॥
गोरचना चिता ललाटे नब तपन जिणि,
तुळसीर माळा कण्ठरे हृदे कौस्तुभ मणि ॥ ३ ॥
शङ्ख चक्र गदा शारङ्ग शोहे चतुर कर,
चन्दने चर्च्चित श्रीअङ्ग भूषा पीत अम्बर ॥ ४ ॥
कळाश्रीबदन कमळ- नेत्र जगमोहन,
अलौकिक दिव्य रूपकु सरि नुहे मदन ॥ ५ ॥
मृदु हासमय बदनुँ किबा अमृत झरे,
हसाइ रसाइ बसिछ प्रभु नीळकन्दरे ॥ ६ ॥
सङ्गे बळभद्र सुभद्रा बिजे बड़ देउळे,
अपूरुब तिनि मूरति बिराजिछ निश्चळे ॥ ७ ॥
क्षेत्रबर पुरुषोत्तमे अछ हे जगन्नाथ,
लोके चारिबर्ग लभिण होइथान्ति कृतार्थ ॥ ८ ॥
हरि हरिबोल शबदे पुरी पड़े उछुळि,
भक्तगण प्रेमे नाचन्ति बजाइ करताळि ॥ ९ ॥
निर्माल्य प्रसाद भुञ्जिण मन सबुरि तोष,
भाबग्राही प्रभु काळिआ खण्ड क्लेश अशेष ॥ १० ॥
फरहर उड़े पाबन नीळचक्ररे ध्वज,
पतिततारणे बिराजि अछ देबाधिराज ॥ ११ ॥
करुणा-सागर श्रीहरि केबे देब दर्शन,
जणाए माळती-नन्दन मनोहर अज्ञान ॥ १२ ॥