Majaz Lucknawi

1911 – 5 December 1955 / Bara Banki, Uttar Padash / India

वो नौ-खेज़ नूरा, वो एक बिन्त-ए-मरयम - Poem by Majaz Lucknawi

वो नौ-खेज़ नूरा, वो एक बिन्त-ए-मरयम
वो मखमूर आँखें वो गेसू-ए-पुरखम

वो एक नर्स थी चारागर जिसको कहिये
मदावा-ए-दर्द-ए-जिगर जिसको कहिये

जवानी से तिफली गले मिल रही थी
हवा चल रही थी कली खिल रही थी

वो पुर-रौब तेवर, वो शादाब चेहरा
मता-ए-जवानी पे फितरत का पहरा

सफ़ेद शफ्फाफ कपड़े पहन कर
मेरे पास आती थी एक हूर बन कर

दवा अपने हाथों से मुझको पिलाती
'अब अच्छे हो', हर रोज़ मुज्ह्दा सुनाती

नहीं जानती है मेरा नाम तक वो
मगर भेज देती है पैगाम तक वो

ये पैगाम आते ही रहते हैं अक्सर
कि किस रोज़ आओगे बीमार होकर
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