Kedarnath Singh

7 July 1934 / Chakia, Ballia, Uttar Pradesh / India

मेरी भाषा के लोग - Poem by Kedarnath Singh

मेरी भाषा के लोग
मेरी सड़क के लोग हैं

सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग

पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग
एक बस में बैठे हैं
और हिंदी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस
हवा में गायब हो गई
और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिंदी
जो अंतिम सिक्के की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास
हर मुश्किल में

कहती वह कुछ नहीं
पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ
कि उसकी खाल पर चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण

पर इन सबके बीच
असंख्य होठों पर
एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह !

तुम झांक आओ सारे सरकारी कार्यालय
पूछ लो मेज से
दीवारों से पूछ लो
छान डालो फ़ाइलों के ऊंचे-ऊंचे
मनहूस पहाड़
कहीं मिलेगा ही नहीं
इसका एक भी अक्षर
और यह नहीं जानती इसके लिए
अगर ईश्वर को नहीं
तो फिर किसे धन्यवाद दे !

मेरा अनुरोध है —
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —
कि राज नहीं — भाषा
भाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ।
इसमें भरा है
पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की
इतनी आवाजों का बूंद-बूंद अर्क
कि मैं जब भी इसे बोलता हूं
तो कहीं गहरे
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
यहां तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज भी
सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिंदी

पर जब भी बोलता हूं
यह लगता है —
पूरे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी हूं
एक तद्भव का दुख
तत्सम के पड़ोस में ।
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