Kazim Jarwali

Shair-e-Fikr] (15 June 1955 / Jarwal / India

पतझड़ - Poem by

पेड़ों की शाखाए चुप हैं लुटा हुआ श्रृंगार लिए ,
पापी पछुवा के झोंको ने सारे वस्त्र उतार लिए ।

कब से रस्ता देख रहा है पतझड़ से सन्देश कहो ,
पीला पत्ता हरी मुलायम कोंपल का उपहार लिए ।

कितनी जल की धाराओं ने पाँव छुवा और लौट गयीं ,
मैं सागर तट पर बैठा हूँ तृष्णा का अंगार लिए ।

जल पथ पर तूफ़ान खड़े हैं पत्थर की दीवार बने ,
मांझी नौका मे बैठा है एक टूटी पतवार लिए ।

बाहर का है दृश्य कैसा नन्ही चिड़िया भय खाकर ,
छुपी घोंसले मे बैठी है छोटा सा परिवार लिए ।

नेत्रहीन निंद्रा है अपनी क्या देखू क्या ध्यान करूँ ,
घर से रैन चली जाती है सपनो का संसार लिए ।

हे दिनकर हे अम्बर पंथी उज्यारे के दूत ठहर ,
संध्या स्वागत को आयी है अन्धकार का हार लिए ।

कल जिनको घिर्णा थी तेरी रचनाओ से आज वही ,
"काज़िम" तुझको खोज रहे हैं हाथों मे अखबार लिए ।।
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