Kazim Jarwali

Shair-e-Fikr] (15 June 1955 / Jarwal / India

लफ्ज़े मोअत्बर - Poem by Kazim Jarwali

कोई भी लफ्ज़ मेरा जैसे मोअत्बर ही नही ,
मेरी सदा का किसी पर कोई असर ही नही ।

ये मंजिले भी उसी को सदाए देती हैं ,
वो शख्स जिसको कोई खुवाहिशे सफ़र ही नही ।

तेरे वुजूद से इनकार तेरे होते हुए ,
पता है सबका तुझे अपनी कुछ खबर ही नही ।

मेरे भी नक्श-ए-क़दम हैं ख़लाओं में तहरीर,
ये अर्श सिर्फ सितारों की रहगुज़र ही नही ।

ये संगो खिस्त हैं बे चश्म नाज़री मेरे,
मेरे गवाह फ़कत साहिबे नज़र ही नही ।

गुज़र रहाँ हूँ मे कितनी अजीब राहों से,
सिवाए मेरे मेरा कोई हमसफ़र ही नही ।

ठहर गयी मेरी आँखों मे आके ऐ "काज़िम",
एक ऐसी रात के जिसकी कोई सहर ही नही ।।
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