Kazim Jarwali

Shair-e-Fikr] (15 June 1955 / Jarwal / India

सराब-ऐ-हयात - Poem by Kazim J

सराबो से नवाज़ा जा रहा हूँ,
आमीर-ए-दश्त बनता जा रहा हूँ ।

मैं खुशबु हु यह दुनिया जानती है,
मगर फिर भी छुपाया जा रहा हुं ।

ज़माना मुझ्को सम्झे या न सम्झे,
मै एक दिन हूँ, जो गुज़रा जा रहा हूँ ।

मेरे बाहर फ़सीले आहनी है,
मगर अन्दर से टुटा जा रहा हूँ ।

मेरे दरिया, हमेशा याद रखना,
तेरे साहिल से पियासा जा रहा हूँ ।

तुम अब थकती हुई नज़रे झुका लो,
बुलंदी से मै उतरा जा रहा हूँ ।।
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