Kaifi Azmi

19 January 1919 - 10 May 2002 / Azamgarh / British India

नज़राना - Poem by Kai

तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
इसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं
शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा चला जाऊँगा

रास्ता भूल गया या यहाँ मंज़िल है मेरी
कोई लाया है या ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं
कहते हैं हुस्न कि नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं

यूँ तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया
कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिये आँखों में छुपा रक्खा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं

एक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्कुरा देती हो रसमन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है

गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिस की इक आँच से हर रूह पिघल जाती है
मैं ने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरह भी क्या साँचे में ढल जाती है

क्या कमी है जो करोगी मेरा नज़राना क़ुबूल
चाहने वाले बहुत चाह के अफ़साने बहुत
एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क़
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहुत

फिर भी इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तनहाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम को
और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो

आज की रात जो मेरी तरह तन्हा है
मैं किस तरह गुज़ारूँगा चला जाऊँगा
तुम परेशाँ न हो बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
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