Gopal Singh Nepali

1911–1963 / India

सरिता - Poem by

यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल¸ कितना निर्मल¸

हिमगिरि के हिम से निकल-निकल¸
यह विमल दूध-सा हिम का जल¸
कर-कर निनाद कल-कल¸ छल-छल
बहता आता नीचे पल पल

तन का चंचल मन का विह्वल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

निर्मल जल की यह तेज़ धार
करके कितनी श्रृंखला पार
बहती रहती है लगातार
गिरती उठती है बार बार

रखता है तन में उतना बल
यह लघु सरिता का बहता जल।।
एकांत प्रांत निर्जन निर्जन
यह वसुधा के हिमगिरि का वन
रहता मंजुल मुखरित क्षण क्षण
लगता जैसे नंदन कानन

करता है जंगल में मंगल
यह लघु सरित का बहता जल।।

ऊँचे शिखरों से उतर-उतर¸
गिर-गिर गिरि की चट्टानों पर¸
कंकड़-कंकड़ पैदल चलकर¸
दिन-भर¸ रजनी-भर¸ जीवन-भर¸

धोता वसुधा का अन्तस्तल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

मिलता है उसको जब पथ पर
पथ रोके खड़ा कठिन पत्थर
आकुल आतुर दुख से कातर
सिर पटक पटक कर रो रो कर

करता है कितना कोलाहल
यह लघु सरित का बहता जल।।

हिम के पत्थर वे पिघल-पिघल¸
बन गये धरा का वारि विमल¸
सुख पाता जिससे पथिक विकल¸
पी-पीकर अंजलि भर मृदु जल¸

नित जल कर भी कितना शीतल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

कितना कोमल¸ कितना वत्सल¸
रे! जननी का वह अन्तस्तल¸
जिसका यह शीतल करूणा जल¸
बहता रहता युग-युग अविरल¸

गंगा¸ यमुना¸ सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल।।
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