Geet Chaturvedi

27 November 1977 - / Mumbai / India

मैंने कहा, तू कौन है? उसने कहा, आवारगी - Poem by Geet Chaturvedi

बहुत सारी रातें मैंने काम करके बिताई हैं
लिखते हुए, पढ़ते हुए.
हमेशा अकेला ही रहा, इसलिए महज़ ख़ुद से लड़ते हुए.
लेकिन मैं याद करता हूँ उन रातों को
जब मैंने कुछ नहीं किया, पैरों को मेज़ पर फैलाकर बैठा
दीवार पर बैठे मच्‍छर को बौद्ध-दर्शन की किताब से दबा दिया.
काँच के गिलास को उँगलियों से खिसकाकर फ़र्श पर गिरा दिया,
महज़ यह जानने के लिए कि
चीज़ों के टूटने में भी संगीत होता है।

एक रात बरामदे में झाड़ू लगाया और उसी बहाने आधी सड़क भी साफ़ कर दी
किताबों से धूल हटाने की कोशिश की तो जाना-
साहित्‍य और धूल में वर-वधू का नाता है.
बाक़सम, इस बात ने मुझे थोड़ा विनम्र बनाया.
मैंने धूल को साहित्‍य और साहित्‍य को धूल जितना सम्‍मान देना सीखा।

कुछ गोपनीय अपराध किए
तीस साल पुरानी एक लड़की को फेसबुक पर खोजता रहा
और जाना कि पुरानी लड़कियां ऐसे नहीं मिलतीं -
शादी के बाद वे अपना नाम-सरनेम बदल लेती हैं।

सीटी बजाते हुए सड़कों पर तफ़रीह की
और एक बूढ़े चौकीदार के साथ सूखी टहनियां तलाशीं
ताकि वह अलाव ताप सके।
एक रात जब सिगरेट ख़त्‍म हो गई तब बड़ी मेहनत से ढूँढ़ा उस चौकीदार को.
उसने मुझे पहचान लिया और अपनी बीड़ी का आधा बण्डल मुझे थमा दिया।

एक औरत से मैंने सिर्फ़ एक वक़्त की रोटी का वादा किया था
जवाब में दूसरे वक़्त भूखी रहती थी वह.
आधी रात मैं उसे कार में बिठाता और शहर से बहुत दूर ढाबे में ले जाता.
वह आधी अंगड़ाई जितनी थी, आधी रोटी जितनी, आधी खुली खिड़की जितनी,
आधे लगे नारे जितनी.
खाना खाने के बाद हम प्रॉपर्टी के रेट्स पर बहसें करते
और मिट्टी पर मण्टो का नाम लिखते थे.

एक रात एक पुलिसवाले ने मुझे ज़ोर से डाँटा कि क्‍यों घूम रहा है इतनी रात को?
मैंने भी उसे चमका दिया कि लोग मुझे हिन्दी का बड़ा कवि मानते हैं, तुम ऐसे मुझे डाँट नहीं सकते।
बिफरकर वह बोला, साले, चार डण्डे मारूँगा तेरे पिछवाड़े. घर जाकर सो जा.
मैंने उसके साथ बैठकर तीन सिगरेटें पीं. वह इस बात से परेशान था
कि उसका साहब एक नम्बर का चमड़ी है
और वह अपनी बेटी को पुलिस में नहीं आने देगा.
अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर मुझे घर छोड़ गया।

एक रात जब मैं पैदल भटक रहा था, कुछ कुत्‍ते भौंकने लगे मुझ पर।
मैंने दस्तायेव्‍स्‍की का एक हार्ड-बाउण्ड मोटा उपन्‍यास उन्‍हें दे मारा.
पर कुछ पल बाद ही कुत्‍ते फिर से भौंकने लगे.
मैंने इसे फ़्योदर की एक और नाकामी मानी
और मन ही मन सोचा :
यह दुनिया माईला... नाम्‍या ढसाळ का गाण्डूबगीचा है।

जिन रातों को मैंने मोटी-मोटी किताबें पढ़ीं,
कुछ कवियों को सराहा, कई पर नाक-भौं सिकोड़ी,
जिन रातों को बैठकर मैंने अपनी कविताएँ सुधारीं, गद्य लिखे -
मैं उन रातों को कभी याद नहीं करता
न ही वे चीज़ें याद आती हैं जो मैंने लिखी हैं -
वे बेशक भूल जाने लायक़ हैं.
पर जो चीज़ मैं नहीं भूल पाता, वह है अपनी रातों की आवारगी.
न पैसा न दमड़ी, न किताब न कविता
जब मरूँगा, छाती से बाँध के ले जाऊँगा ये अपनी आवारगी।

और हाँ, जाने कितनी रातें मैंने छत पर गुज़ारी हैं.
कभी रेलिंग से टिककर धुआँ उड़ाते. कभी नंगी फ़र्श पर चित लेटे
आकाश निहारते.
ख़ुद से कहा है बारहा - लोग तुम्‍हें कितना भी रूमानी कहें गीत चतुर्वेदी
आँसू, गुलाब और सितारे से कभी बेवफ़ाई मत करना.
कविता ख़राब बन जाए, वान्‍दा नहीं
पर दिल को इन्‍हीं तीनों से माँजना - हमेशा साफ़ रहेगा.
अंतत: ख़ुद कवि को ही करनी होती है
अपनी बेचैनियों की हिफ़ाज़त।
कविता की शीर्षक मोहसिन अली नक़वी की एक ग़ज़ल की एक पंक्ति है

गाण्डूबगीचा' मराठी कवि नामदेव ढसाळ के एक कविता-संग्रह का नाम है
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