Geet Chaturvedi

27 November 1977 - / Mumbai / India

सबसे प्रसिद्ध प्रश्‍न 'मैं क्‍या हूँ' के कुछ निजी उत्‍तर - Poem by Geet Chaturvedi

रोटी बेलकर उसने तवे पर बिछाई
और जिस समय उसे पलट देना था रोटी को
ठीक उसी समय एक लड़की का फ़ोन आ गया.
वह देर तक भूले रहा रोटी पलटना.
मैं वही रोटी हूँ.
एक तरफ़ से कच्‍ची. दूसरी तरफ़ से जली हुई।

उस स्‍कूल में कोई बेंच नहीं थी, कमरा भी नहीं था विधिवत
इमारत खण्डहर थी.
बारिश का पानी फ़र्श पर बिखरा था और बीच की सूखी जगह पर
फटा हुआ टाट बिछाकर बैठे बच्‍चे हिन्दी में पहाड़ा रट रहे थे.
सरसराते हुए गुज़र जाता है एक डरावना गोजर
एक बच्‍चे की जाँघ के पास से.
अमर चिउँटियों के दस्‍ते में से कोई दिलजली चिउँटी
निकर के भीतर घुसकर काट जाती है.
नहीं, मैं वह स्‍कूल नहीं, वह बच्‍चा भी नहीं, गोजर भी नहीं हूँ
न अमर हूँ, न चिउँटी.
मैं वह फटा हुआ टाट हूँ।

गोल्‍ड स्‍पॉट पीने की ज़िद में घर से पैसे लेकर निकला है एक बच्‍चा.
उसकी क़ीमत सात रुपए है. बच्‍चे की जेब में पाँच रुपए।
माँ से दो रुपए और लेने के लिए घर की तरफ़ लौटता बच्‍चा
पाँच बार जाँचता है जेब में हाथ डाल कि
पाँच का वह नोट सलामत है.
घर पहुँचते-पहुँचते उसके होश उड़ जाते हैं कि जाने कहाँ
गिर गया पाँच रुपए का वह नोट। वह पाँच दिन तक रोता रहा।
हाँ, आपने सही समझा इस बार,
मैं वह पाँच रुपए का नोट हूँ.
उस बच्‍चे की आजीवन सम्पत्ति में
पाँच रुपए की कमी की तरह मैं हमेशा रहूँगा।

मैं भगोने से बाहर गिर गई उबलती हुई चाय हूँ.
सब्‍ज़ी काटते समय उँगली पर लगा चाक़ू का घाव हूँ.
वीरेन डंगवाल द्वारा ली गई हल्‍दीराम भुजिया की क़सम हूँ
अरुण कोलटकर की भीगी हुई बही हूँ.

और...
और...
चलो मियाँ, बहुत हुआ.
अगले तेरह सौ चौदह पन्‍नों तक लिख सकता हूँ यह सब.
‘मैं क्‍या हूँ' के इतने सारे उत्‍तर तो मैंने ही बता दिए
बाक़ी की कल्‍पना आप ख़ुद कर लेना
क्‍योंकि मैं जि़म्‍मेदारी से भागते पुरुषों की
सकुचाई जल्‍दबाज़ी हूँ, अलसाई हड़बड़ाहट हूँ

चलते-चलते बता दूँ
ठीक इस घड़ी, इस समय
मैं दुनिया का सबसे सुन्दर मनुष्‍य हूँ
मेरे हाथ में मेरे प्रिय कवि का नया कविता-संग्रह है।
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