Dharamvir Bharati

25 December 1926 - 4 September 1997 / Allahabad, Uttar Pradesh / British India

कनुप्रिया (पूर्वराग - दूसरा गीत) - Poem by Dharamvir Bharati

यह जो अकस्मात्
आज मेरे जिस्म के सितार के
एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो -
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
तुम कब से मुझ में छिपे सो रहे थे।

सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को -
पोर-पोर को अवगुण्ठन में ढँक कर तुम्हारे सामने गयी
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी,
मैंने अक्सर अपनी हथेलियों में
अपना लाज से आरक्त मुँह छिपा लिया है
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी
मैं अक्सर तुमसे केवल तम के प्रगाढ़ परदे में मिली
जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था
मुझे तुमसे कितनी लाज आती थी,

पर हाय मुझे क्या मालूम था
कि इस वेला में जब अपने को
अपने से छिपाने के लिए मेरे पास
कोई आवरण नहीं रहा
तुम मेरे जिस्म के एक-एक तार से
झंकार उठोगे
सुनो! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
इस क्षण की प्रतीक्षा मे तुम
कब से मुझ में छिपे सो रहे थे!
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