Bhawani Prasad Mishra

29 March 1913 – 20 February 1985 / India

व्यक्तिगत - Poem by Bhawani

मैं कुछ दिनों से
एक विचित्र
सम्पन्नता में पड़ा हूँ

संसार का सब कुछ
जो बड़ा है
और सुन्दर है

व्यक्तिगत रूप से
मेरा हो गया है
सुबह सूरज आता है तो

मित्र की तरह
मुझे दस्तक देकर
जगाता है

और मैं
उठकर घूमता हूँ
उसके साथ

लगभग
डालकर हाथ में हाथ
हरे मैदानों भरे वृक्षों

ऊँचे पहा़ड़ों
खिली अधखिली
कलियों के बीच

और इनमें से
हरे मैदान वृक्ष
पहाड़ गली

और कली
और फूल
व्यक्तिगत रूप से

जैसे मेरे होते हैं
मैं सबसे मिलता हूँ
सब मुझसे मिलते हैं

रितुएँ
लगता है
मेरे लिए आती हैं

हवाएँ जब
जो कुछ गाती हैं
जैसे मेरे लिए गाती हैं

हिरन
जो चौकड़ी भरकर
निकल जाता है मेरे सामने से

सो शायद इसलिए
कि गुमसुम था मेरा मन
थोड़ी देर से

शायद देखकर
क्षिप्रगति हिरन की
हिले-डुले वह थोड़ा-सा

खुले
झूठे उन बन्धनों से
बँधकर जिनमे वह गुम था

आधी रात को
बंसी की टेर से
कभी बुलावा जो आता है

व्यक्तिगत होता है
मैं एक विचित्र सम्पन्नता में
पड़ा हूँ कुछ दिनों से

और यह सम्पन्नता
न मुझे दबाती है
न मुझे घेरती है

हलका छोड़े है मुझे
लगभग सूरज की किरन
पेड़ के पत्ते

पंछी के गीत की तरह
रितुओं की
व्यक्तिगत रीत की तरह

सोने से सोने तक
उठता-बैठता नहीं लगता
मैं अपने आपको

एक ऐश्वर्य से
दूसरे ऐश्वर्य में
पहुँचता हूँ जैसे

कभी उनको तेज
कभी सम
कभी गहरी धाराओं में

सम्पन्नता से
ऐसा अवभृथ स्नान
चलता है रातों-दिन

लगता है
एक नये ढंग का
चक्रवर्ती बनाया जा रहा हूँ

मैं एक व्यक्ति
हर चीज़ के द्वारा
व्यक्तिगत रूप से मनाया जा रहा हूँ !
250 Total read