खरगोश अँधेरे में
धीरे-धीरे कुतर रहे हैं पृथ्वी ।
पृथ्वी को ढोकर
धीरे-धीरे ले जा रही हैं चींटियाँ ।
अपने डंक पर साधे हुए पृथ्वी को
आगे बढ़ते जा रहे हैं बिच्छू ।
एक अधपके अमरूद की तरह
तोड़कर पृथ्वी को
हाथ में लिये है
मेरी बेटी ।
अँधेरे और उजाले में
सदियों से
अपना ठौर खोज रही है पृथ्वी
(रचनाकालः1985)